जयपुर। पाक रमजान के आखिरी दिनों में जकात और फितरा देने के दौर शुरू हो जाएगा जो कि ईद तक चलेगा। इस्लाम धर्म में जकात यानी दान और ईद पर दिया जाने वाले फितरा का खास महत्व है। रमजान में इनको अदा करने का महत्व और बढ़ जाता है। क्योंकि इस महीने में हर नेकी का अल्लाह तआला सत्तर गुना अता करता है। यह हर मुसलमान पर फर्ज है जिसके पास साढ़े सात तोला सोना या साढ़े बावन तोला चांदी की हैसियत हो है। संसारचंद्र रोड स्थित दरगाह मीर कुरबान अली के सज्जादानशीन डॉ. सैय्यद हबीब उर रहमान नियाजी के अनुसार साल भर की कमाई का ढाई प्रतिशत जकात के रूप में मिस्कीनों को देना हर साहिबे निसाब मुसलमान पर फर्ज है। ईद की नमाज के बाद फितरा देना वाजिब है। साल भर की कमाई पर शुद्ध लाभ का ढाई प्रतिशत जकात के रूप में देना फर्ज है। यह केवल मिस्कीनों, ऐसे मुसाफिरों को जिनके पास कुछ नहीं बचा उसी को देना चाहिए। वहीं फितरा घर के प्रत्येक सदस्य पर पौने दौ किलो गेहूं या इसके बराबर की कीमत देना वाजिब है। वो माल सूखे और पानी में बर्बाद नहीं हो सकता जिसका जकात निकल चुका हो।
डॉ. नियाजी ने बताया कि जकात में इतनी रकम तो अवश्य दी जाए कि जरूरतमंद व्यक्ति नए कपड़े खरीदकर ईद तो मना स सकेें। कुछ लोग जकात के पैसे छोटे-छोटे हिस्सों में कई व्यक्तियों को बांट देते हैं, यह सही नहीं है। गरीब व्यक्ति को इतने रूपए तो देने ही चाहिए जिससे वह कपड़े खरीद कर ईद में शामिल हो सकें। केवल राशन की व्यवस्था करने से भी जकात का उद्देश्य पूरा नहीं होता। जकात रक्त संबंध आधारित रिश्तेदारों को नहीं दी जा सकती। जकात पर सबसे पहला हम यतीम बच्चों और बेवा महिलाओं का है। मस्जिदों के निर्माण और रख रखाव के लिए जकात नहीं दी जा सकती। इसके लिए अलग से धन देना चाहिए। जिन मदरसों को सरकार से मदद मिल रही है उन्हें भी जकात नहीं दी जा सकती।
वहीं समाजसेवी वाहिद यजदानी बताते है कि इस्लाम में एक ऐसा तरीका है जिसको अगर सही तरीके के इस्तेमाल किया जाए तो समाज से गरीबी को मिटाया जा सकता है। हर साल रमजान के महीने में ऐसे लोग जिनकी माली हालत अच्छी होती है अपनी कमाई में से एक निश्चित रकम को जकात के लिए निकालते हैं। हालांकि ज्यादातर लोग इस रकम को अपने आसपास के रहने वाले गरीबों में या फिर किसी मदरसे में ही दे देते हैं। जकात की रकम को सही व्यक्ति के पास जमा करवाकर उसे इस तरह से इस्तेमाल किया जाए कि हर साल कुछ गरीब लोग गरीबी से बाहर निकल सकें और अगले साल दूसरों की मदद की जा सके। होनहार गरीब बच्चों को छात्रवृति देने और यतीम बच्चों को शिक्षा देने, गंभीर बीमारियों के इलाज के लिए जकात का उपयोग होना चाहिए।
डॉ. नियाजी ने बताया कि जकात में इतनी रकम तो अवश्य दी जाए कि जरूरतमंद व्यक्ति नए कपड़े खरीदकर ईद तो मना स सकेें। कुछ लोग जकात के पैसे छोटे-छोटे हिस्सों में कई व्यक्तियों को बांट देते हैं, यह सही नहीं है। गरीब व्यक्ति को इतने रूपए तो देने ही चाहिए जिससे वह कपड़े खरीद कर ईद में शामिल हो सकें। केवल राशन की व्यवस्था करने से भी जकात का उद्देश्य पूरा नहीं होता। जकात रक्त संबंध आधारित रिश्तेदारों को नहीं दी जा सकती। जकात पर सबसे पहला हम यतीम बच्चों और बेवा महिलाओं का है। मस्जिदों के निर्माण और रख रखाव के लिए जकात नहीं दी जा सकती। इसके लिए अलग से धन देना चाहिए। जिन मदरसों को सरकार से मदद मिल रही है उन्हें भी जकात नहीं दी जा सकती।
वहीं समाजसेवी वाहिद यजदानी बताते है कि इस्लाम में एक ऐसा तरीका है जिसको अगर सही तरीके के इस्तेमाल किया जाए तो समाज से गरीबी को मिटाया जा सकता है। हर साल रमजान के महीने में ऐसे लोग जिनकी माली हालत अच्छी होती है अपनी कमाई में से एक निश्चित रकम को जकात के लिए निकालते हैं। हालांकि ज्यादातर लोग इस रकम को अपने आसपास के रहने वाले गरीबों में या फिर किसी मदरसे में ही दे देते हैं। जकात की रकम को सही व्यक्ति के पास जमा करवाकर उसे इस तरह से इस्तेमाल किया जाए कि हर साल कुछ गरीब लोग गरीबी से बाहर निकल सकें और अगले साल दूसरों की मदद की जा सके। होनहार गरीब बच्चों को छात्रवृति देने और यतीम बच्चों को शिक्षा देने, गंभीर बीमारियों के इलाज के लिए जकात का उपयोग होना चाहिए।
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