जयपुर। कीर्ति नगर स्थित दिगम्बर जैन मंदिर में विराजमान गणिनी आर्यिका रत्न गौरवमति माताजी ने मंगलवार को प्रातः 8.30 बजे दिए अपने आर्शीवचन में कहा कि " जगत में प्रत्येक प्राणी का अपना एक महत्व है, इंसान को जो मानव रूपी जीवन प्राप्त हुआ है वह अपने आप मे महान है उसकी एक अहमियत है, प्रत्येक प्राणी को इंसान रूपी जीवन के कर्तव्यों का पालन अवश्य रूप से करना चाहिए। क्योकि एक मात्र वही कर्तव्य है जो जीवन की गाड़ी को बिना पंचर लगे सुखी जीवन देती है। जीवन मे सुख और दुख एक ही गाड़ी के दो पहिये सामान है जिसमें किसी मे भी पंचर लग जाये गाड़ी का महत्व कमजोर हो जाता है उसी तरह जीवन के महत्व भी कमजोर हो जाते है।" दुख के साथी सुख में ना कोए, सुख के साथी दुख में ना कोए । "
ईश्वर ने मानव प्रवर्ति की रचना सुख - दुख के लिए नही किया। बल्कि सुख - दुख के अनुभवों का पालन कर एक-दूसरे की सहायता करने के लिए की थी किंतु मानव प्रवर्ति ने इसकी दिशा और दशा दोनों ही बदल डाली। यह सत्य है कि इस सृष्टि की रचना ईश्वर ने ही कि है किंतु इंसान के अहंकार, क्रोध और मोह - माया की रचना इंसान के स्वयं के लोभ ने की है। इंसान को समझना और विचार करना चाहिए की समस्याएं कभी खत्म नही हो सकती हैं और ना ही संघर्ष। अगर इस सृष्टि में समस्या है तो उसका समाधान भी निश्चित है। उसके लिए संघर्ष करना होता है जिसे करना कोई चाहता ही नही है। इसके विपरीत इंसान समस्याओं से भागकर छोटी से छोटी समस्याओं को भी बढ़ावा दे देता है और उन समस्याओं को बड़ा और विशाल बना देते है और सुबह, शाम परेशानियों का दुखड़ा गाकर ईश्वर को ही कोसने लग जाते है। जबकि इंसान जितना समय दुखड़ा रोने में लगाते हैं यदि उतना समय परिश्रम कर दुःखो पर विचार कर सुख के प्राप्ति का संघर्ष करे तो उसका जीवन ईश्वरमय बन जाता है।
इस सृष्टि में जो व्यक्ति स्वयं के दुख से परिचित होकर दूसरों के दुखों को दूर करने में अपनी भागीदारी निभाता है, वह सच्चा श्रावक कहलाता है। ऐसे व्यक्ति का यही सबसे बड़ा धर्म है, जो कर्म करने में अपना जीवन व्यतीत करते है। ईश्वर ने प्रत्येक प्राणी को बहुत शक्तियाँ प्रदान की है। किन्तु प्राणी स्वयं के लोभ में उनका प्रयोग करना ही भूलकर दुसरो की शक्तियों को भी नष्ट करने को आतुर रहते है। जबकि इंसान को अपनी शक्ति का परिचय प्राप्त कर समश्याओ का अंत कर संघर्ष पर सफलता प्राप्त करनी चाहिए।
ईश्वर ने मानव प्रवर्ति की रचना सुख - दुख के लिए नही किया। बल्कि सुख - दुख के अनुभवों का पालन कर एक-दूसरे की सहायता करने के लिए की थी किंतु मानव प्रवर्ति ने इसकी दिशा और दशा दोनों ही बदल डाली। यह सत्य है कि इस सृष्टि की रचना ईश्वर ने ही कि है किंतु इंसान के अहंकार, क्रोध और मोह - माया की रचना इंसान के स्वयं के लोभ ने की है। इंसान को समझना और विचार करना चाहिए की समस्याएं कभी खत्म नही हो सकती हैं और ना ही संघर्ष। अगर इस सृष्टि में समस्या है तो उसका समाधान भी निश्चित है। उसके लिए संघर्ष करना होता है जिसे करना कोई चाहता ही नही है। इसके विपरीत इंसान समस्याओं से भागकर छोटी से छोटी समस्याओं को भी बढ़ावा दे देता है और उन समस्याओं को बड़ा और विशाल बना देते है और सुबह, शाम परेशानियों का दुखड़ा गाकर ईश्वर को ही कोसने लग जाते है। जबकि इंसान जितना समय दुखड़ा रोने में लगाते हैं यदि उतना समय परिश्रम कर दुःखो पर विचार कर सुख के प्राप्ति का संघर्ष करे तो उसका जीवन ईश्वरमय बन जाता है।
इस सृष्टि में जो व्यक्ति स्वयं के दुख से परिचित होकर दूसरों के दुखों को दूर करने में अपनी भागीदारी निभाता है, वह सच्चा श्रावक कहलाता है। ऐसे व्यक्ति का यही सबसे बड़ा धर्म है, जो कर्म करने में अपना जीवन व्यतीत करते है। ईश्वर ने प्रत्येक प्राणी को बहुत शक्तियाँ प्रदान की है। किन्तु प्राणी स्वयं के लोभ में उनका प्रयोग करना ही भूलकर दुसरो की शक्तियों को भी नष्ट करने को आतुर रहते है। जबकि इंसान को अपनी शक्ति का परिचय प्राप्त कर समश्याओ का अंत कर संघर्ष पर सफलता प्राप्त करनी चाहिए।
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