जयपुर, 27 मार्च, 2019। चिन्मय मिशन द्वारा
मालवीय नगर स्थित पाथेय भवन के देवऋषि नारद सभागृह में गीता जी के 16वें अध्याय पर
प्रवचन करते हुए स्वामी अद्वयानन्द जी ने बताया
कि शास्त्र हमें विधि और निषेध कर्मों का ज्ञान देते हैं. विधि कर्म हमें धर्म (कर्तव्य)
के मार्ग पर ले जाते हैं, धर्म से पुण्य अर्जित होते हैं और पुण्य हमें सुख देते हैं.
निषेध कर्म हमें अधर्म (अकर्तव्य) के मार्ग
पर ले जाते हैं, अधर्म से पाप अर्जित होते हैं और पाप हमें दुःख देते हैं. यह व्यवस्था
ईश्वर की बनाई हुई है और हमें इसे जानकार इसका अनुसरण करना चाहिए. परन्तु आसुरी प्रवृत्ति
के लोग येन-केन-प्रकारेण अपनी ईच्छाओं की पूर्ती में लगे रहते हैं चाहे उन कर्मों से
पाप अर्जित होते रहें. ऐसे लोग अपना तो सर्वनाश करते ही हैं दूसरों के लिए भी दुःख
और शोक का कारण बनते हैं।
भगवान कृष्ण ने आसुरी सम्पति के बारे
मे विस्तृत वर्णन प्रस्तुत किया उसका कारण हैं की भगवान चाहते हैं की हम इन दूगुणों को अच्छे से पहचान ले ताकि हम
इन वृतियों के सूक्ष्म अंश को भी हमारे अंदर
ना आने दें।
क्योंकि इन दूगुणों से उत्पन्न काम क्रोध
पर आश्रित मनुष्य अन्याय पूर्ण तरीके से धन संचित कर के भोगो परायण बने रहते हैं ऐसे
लोग स्वार्थ पूर्वक भोग विलास मे आसक्ति रखते हुए अपने को कर्म योगी बताते हैं दम्भ
पूर्वक दुसरो का दमन करते हैं और स्वयं को ईश्वर मानते हैं
ऐसे मे अहंकार के वश में हो कर ये लोग
बुद्धि भ्रष्ट बना लेते हैं और अनेकों सामाजिक कार्यों को स्वार्थ बुद्धि से संपन्न
करते हैं और अपने घमंड को बड़ा चढ़ा कर दर्शाते हैं। ये सभी आसुरी प्रवृति वाले सब लोग नरक
में गिर जाते हैं।
धन, ज्ञान, पदवी और सम्मान में कोई बुराई
नहीं हैं लेकिन इनका सेवन स्वार्थ के लिए नहीं होना चाहिए वरन ये समाज कल्याण के लिए
उपयोग की जानी चाहिये।
इससे पूर्व प्रातः 8 से 9 बजे तक अद्वैत
पञ्चरत्नं के प्रथम श्लोक पर प्रवचन करते हुए स्वामी जी ने बताया कि यह श्लोक आत्म-अनात्म
विवेक से सम्बंधित है. हम अपने आप को कभी शरीर, कभी प्राण, कभी इन्द्रियाँ, कभी मन
अथवा कभी बुद्धि समझ लेते हैं. परन्तु वास्तव में ये सब तो जड़ हैं. जो कुछ भी दृश्य
है वह दृष्टा नहीं हो सकता. दृष्टा सदैव दृश्य से भिन्न होता है.यह तो नियम है. जो
मेरा है मैं वो भी नहीं हो सकता. शरीर, प्राण, इन्द्रियां, मन और बुद्धि इत्यादि तो मेरे करण हैं. मैं तो इनसे
भिन्न नित्य साक्षी शिवोहम हूँ. जो मंगल (शुभ) है वह शिवोहम है. शिवोहम भी महावाक्य
है. महावाक्य सभी उपनिषदों में हैं. कुछ को हम जानते हैं कुछ को नहीं. चार महावाक्य
जो अधिकतर साधक जानते हैं - प्रज्ञानं ब्रह्म, अहं ब्रह्मास्मि, तत तत्वमसि और अयमात्मा
ब्रह्म हैं जो क्रमशः ऋग वेद, यजुर वेद, साम वेद तथा अथर्व वेद में वर्णित हैं।
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